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देवता: इन्द्र: ऋषि: वत्सः काण्वः छन्द: गायत्री स्वर: षड्जः

यद॑स्य म॒न्युरध्व॑नी॒द्वि वृ॒त्रं प॑र्व॒शो रु॒जन् । अ॒पः स॑मु॒द्रमैर॑यत् ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

yad asya manyur adhvanīd vi vṛtram parvaśo rujan | apaḥ samudram airayat ||

पद पाठ

यत् । अ॒स्य॒ । म॒न्युः । अध्व॑नीत् । वि । वृ॒त्रम् । प॒र्व॒ऽशः । रु॒जन् । अ॒पः । स॒मु॒द्रम् । ऐर॑यत् ॥ ८.६.१३

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:6» मन्त्र:13 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:11» मन्त्र:3 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:13


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शिव शंकर शर्मा

ईश्वर कल्याणकृत् है, यह इस ऋचा से सिखलाते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - समुद्र में जल कहाँ से आया, ऐसी अपेक्षा होने पर ईश्वर ही इसका भी कारण है, यह इस ऋचा से दिखलाया जाता है। यथा (यद्) जब सृष्टि की आदि में (अस्य) इस इन्द्राभिधायी परमात्मा का (मन्युः) मननसाधन विज्ञान (वृत्रम्) बाधक अन्तराय को (पर्वशः) खण्ड-२ करके (वि+रुजन्) दूर करता हुआ (अध्वनीत्) शब्दायमान होता है अर्थात् जीवन के लिये जल होना चाहिये, जब ऐसा संकल्प परमात्मा का होता है, तब वह ईश्वर (अपः) जल को=जलधारी मेघ को (समुद्रम्) आकाश में (ऐरयत्) फैलाता है। उसके संकल्पमात्र से जल हुआ है, यह इसका आशय है ॥१३॥
भावार्थभाषाः - यह जगत् महा महाऽद्भुत है। इसका तत्त्व सुस्पष्ट नहीं, तथापि सर्वदा इसकी जिज्ञासा करनी चाहिये। तत्त्ववित् पण्डितों को जल पृथिवी आदिकों के होने के कारण प्रतीत होते हैं, अतः हे मनुष्यों ! सृष्टि का अध्ययन करो ॥१३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) जब (अस्य, मन्युः) इसका प्रभाव (अध्वनीत्) प्रादुर्भूत हुआ तब (वृत्रम्) वारक अज्ञान को (पर्वशः) पर्व-पर्व में (विरुजन्) भग्न करता हुआ (अपः, समुद्रम्) जल तथा समुद्र को (ऐरयत्) प्रादुर्भूत करता है ॥१३॥
भावार्थभाषाः - जब उपासक उपासनाओं द्वारा शुद्ध हो जाता है अर्थात् उसके मल-विक्षेपादि निवृत्त हो जाते हैं, तब परमात्मा उसमें अज्ञान की निवृत्ति द्वारा ज्ञान का प्रादुर्भाव करते हैं अर्थात् उपासक तपश्चर्या के प्रभाव से ज्ञान प्राप्त कर सुखोपभोग करता है, अतएव सुख की कामनावाले पुरुषों को उचित है कि वे अज्ञान की निवृत्तिपूर्वक ज्ञान की वृद्धि करने में सदा तत्पर रहें ॥१३॥
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शिव शंकर शर्मा

ईश्वरः कल्याणकृदस्तीत्यनया शिक्षते।

पदार्थान्वयभाषाः - समुद्रे कुतो जलमागतमित्यपेक्षायामीश्वर एवास्य कारणमित्यनया प्रदर्श्यते। यथा। यद्=यदा सृष्ट्यादौ। अस्येन्द्रस्य परमात्मनः। मन्युः=मननसाधनं विज्ञानम्। वृत्रम्=आवृत्य तिष्ठन्तं बाधकम्। पर्वशः=पर्वाणि पर्वणि। विरुजन्=विभञ्जन्=अपसारयन्। अध्वनीत्= शब्दायमानोऽभूत्। जलेन जीवनाय भाव्यमिति यदा परमेश्वरस्य संकल्पोऽभूदित्यर्थः। तदा। स हि परमात्मा। अपः=जलानि जलाधारं मेघमित्यर्थः। समुद्रमैरयत्=समुद्रमाकाशम्। ईरयति प्रेरयति विस्तारयति। तस्य संकल्पादेव जलं बभूवेत्यर्थः ॥१३॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (यत्) यदा (अस्य, मन्युः) अस्य प्रभावः (अध्वनीत्) प्रादुर्भूत् तदा (पर्वशः) पर्वणि पर्वणि (वृत्रम्, विरुजन्) वारकमज्ञानं नाशयत् (अपः, समुद्रम्) जलं समुद्रं च (ऐरयत्) प्रादुरभावयत् ॥१३॥